गुरु भक्त उत्तक की कहानी (Guru Bhakt Uttak ki New Kahaniyan in Hindi):- Motivational Kahani, Motivational Hindi Story
आयोदधौम्य के तीसरे शिष्य थे वेद। वेद ऋषि अपनी विद्या अध्ययन पूर्ण कर लेने के बाद वे अपने घर गये और वहाँ वे गृहस्त धर्म का पालन करते हुए रहने लगे। वेद ऋषि को राजा जनमेजय और राजा पौष्य ने अपना राजगुरु बनाया। वेद ऋषि के भी तीन शिष्य हुए। वेद मुनि के सबसे प्रिय शिष्य थे उत्तक। वे जब भी कहीं बाहर जाते, तो उत्तक के ऊपर ही घर का सब कार्य भार सौंप कर जाते थे। एक बार वेद मुनि किसी काम से बाहर जाने लगे। तब उन्होंने अपने प्रिय शिष्य उत्तक से कहा-बेटा! मै बाहर जा रहा हूँ। जब तक मै वापस न आ जाऊ तब तक तुम्ही को यहॉ पर सभी काम करने है। मेरी अनुपस्थिति में यहॉ जिस चीज की भी जरूरत हो,उसका प्रबन्ध तुमको ही करना है। उत्तक ने गुरु की आज्ञा मान ली और गुरु जी चले गये। गुरु जी की पत्नी बहुत स्नेहमयी, पवित्र हृदय वाली और शिष्यो के कल्याण की इच्छा करने वाली थी। शिष्य के कल्याण की इच्छा से शिष्य की परीक्षा लेने के लिए गुरु पत्नी ने अपनी सहेलियो से उत्तक को कहलाया- कि मैं ऋतुस्नान करके निवृत्त हुई हूँ और तुम्हारे गुरु जी यहाँ पर नहीं है। वे अपनी अनुपस्थिति मे तुम से सब कार्य करने को कह गये है। तुम ऐसा काम करो कि मेरा ऋतुकाल व्यर्थ न जाय।
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जब उत्तक ने यह बात सुनी, तब उसने बड़ी विनम्रता से कहा- गुरु जी मुझसे कोई भी गलत कार्य करने को नहीं कह गये हैं। ऐसा कार्य मैं कभी नहीं करूँगा। कुछ समय बाद जब गुरु जी आश्रम लौटे, तब अपने शिष्य के इस मर्यादा पूर्ण और सदाचार पूर्ण आचरण सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और उत्तक को सर्वशास्त्र ज्ञाता होने का आशीर्वाद दिया।
जब उत्तक का अध्ययन समाप्त हो गया और वह अपने घर जाने लगा। तब उसने अपने गुरु से गुरूदक्षिणा मॉगने को कहा परन्तु गुरूदेव ने दक्षिणा लेने से मना कर दिया परन्तु उत्तक के बार बार कहने पर कि मै आपको क्या दक्षिणा दूं और मैं आपका कौन सा प्रिय कार्य करूँ जिससे आपको खुशी मिले। क्योकि विद्याध्ययन के समाप्त होने के पश्चात गुरू को गुरु दक्षिणा अवश्य देनी चाहिये। गुरु जी ने उत्तक को बहुत समझाया कि तुमने मेरी पूरे मन से सेवा की है। यही मेरे लिए सबसे बड़ी गुरू दक्षिणा है। कितु उत्तक नहीं माना, और वे बार-बार गुरुदक्षिणा के लिये गुरू जी से आग्रह करने लगा। तब गुरु जी ने कहा-अच्छा ठीक है, भीतर जाकर गुरु माता से पूछ आओ। उसे जो प्रिय हो, वही तुम कर देना। वही तुम्हारी गुरु दक्षिणा होगी। यह सुनकर उत्तक खुश होकर भीतर गया और गुरु माता से प्रार्थना कि गुरु दक्षिणा देने के लिए मै आपके लिए क्या करूँ तब गुरु माता ने कहा कि आज से चौथे दिन पुण्यक नामक व्रत है तो पौष्य राजा की रानी ने जो कुण्डल पहने हुए है, उस दिन मुझे वो कुण्डल अवश्य ला कर दो। उस दिन मैं उन कुण्डलो को पहनकर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहती हूँ।
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यह सुनकर उत्तक ऋषि अपने गुरु और गुरु माता को प्रणाम करने के बाद पौष्य राजा की राजधानी की तरफ चल दिये। रास्ते मे उन्हें धर्मरूपी बैल पर बैठे हुए देवताओ के राजा इन्द्र मिले। इन्द्र ने कहा- उत्तक ! तुम इस बैल का गोबर खा लो। डरो मत, तुम्हारे गुरू ने भी इसे खाया है। इन्द्र की आज्ञा पाकर उत्तक ने बेल का पवित्र गोबर और मूत्र ग्रहण कर लिया। जल्दी होने के कारण साधारण आचमन करके वे पौष्य राजा के यहाँ पहुंचे। पौष्य ने ऋषि से आने का कारण पूछा। तब उत्तक ने कहा कि मै वेद गुरू का शिष्य हूँ और गुरुदक्षिणा मे गुरु माता को देने के लिये मैं आपकी रानी के कुण्डलो की याचना करने आया हूँ।
राजा ने कहा-आप तो ब्रह्मचारी हैं। स्वयं ही जाकर रानी से कुण्डल मॉग लिजिए। यह सुनकर उत्तक राज महल मे गये परन्तु वहाँ उन्हें रानी नहीं दीखी। तब उत्तक राजा के पास आकर क्रोध में बोले ‘महाराज ! क्या आप मुझसे हंसी मजाक करते है? रानी तो वहॉ महल में नहीं है।
राजा ने कहा- ब्रह्मान! रानी भीतर राजमहल में ही है। आपका मुख अवश्य ही जूठा है। सती स्त्रियाँ जूठे मुख वाले पुरुषो को दिखायी नहीं देती है। उत्तक को अपनी गलती का अहसास हुआ।
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उन्होंने हाथ पैर धोकर प्राणायाम करके तीन बार आचमन किया। तब वे पुन: अन्दर रानी के कक्ष में गये। वहाँ जाते ही उन्हे रानी दिखायी दी। उत्तक का उन्होने सत्कार किया और आने का कारण पूछा। उत्तक ने कहा- गुरु माता के लिये मैं आपके कुण्डलों की याचना करने आया हूँ।
उसे ब्रह्माचारी और सत्पात्र समझकर रानी ने अपने कुण्डल उतारकर उत्तक को दे दिये और साथ में यह भी कहा कि इन कुण्डलों को बड़ी ही सावधानी से ले जाना। नागों का राजा तक्षक इन कुण्डलो की तलाश मे सदा घूमा रहता है। उत्तक मुनि रानी को आशीर्वाद देकर और रानी से कुण्डलो को लेकर चल दिये । रास्ते में एक नदी पर वे नित्यकर्म कर रहे थे कि इतने मे ही तक्षक नाग मनुष्य का रूप रखकर वहॉ आया और कुण्डलो को लेकर भागा। उत्तक भी उसके पीछे पीछे भागे। किंतु वह अपना असली रूप धारण करके पाताल मे चला गया। देवराज इन्द्र की सहायता से उत्तक भी पाताल मे चले गये। वहाँ इन्द्र को अपनी स्तुति से प्रसन्न करके नागो को जीत लिया और तक्षक से कुण्डलों को वापस ले आये। निश्चित समय पर गुरु माता के पास पहुचने में भी देवराज इन्द्र ने उत्तक की सहायती की।
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गुरु माता उत्तक को देखकर बहुत खुश हुई और बोली- बेटा उत्तक यदि तुम थोडी देर और न आते तो मैं तुम्हे शाप देने वाली थी। लेकिन अब तुम आ गये हो तो तुम्हे आशीर्वाद देती हूँ कि तुम्हे सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाये। गुरु माता को कुण्डल देकर उत्तर गुरु जी के पास गये और उन्हे सब समाचार सुनाया। सब बातो को सुनकर गुरू जी ने कहा- देवराज इन्द्र मेरे मित्र है और वह गोबर अमृत था, इसी कारण तुम पाताल मे जा सके। मै तुम्हारे साहस से बहुत प्रसन्न हूँ। अब तुम भी प्रसन्नता पूर्वक अपने घर जाओ। इस प्रकार गुरु और गुरुमाता का आशीर्वाद पाकर उत्तक अपने घर आ चले गये।
उत्तक बड़े ही प्रतापी, तपस्वी, ज्ञानी ऋषि थे। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के बाद द्वारका लौटते समय उन्हे अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराये थे।
Hindi Stories with Moral:- इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि हमें हमेशा अपने गुरू की आज्ञा का पालन करना चाहिए और हमेशा गुरू का सम्मान करना चाहिए।
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