आग्नेय महापुराण के अनुसार ‘सृष्टि की रचना का वर्णन’ Creation of the universe (Srishti ki rachna) –
अग्निदेव कहते हैं – ब्रह्मन ! अब मैं जगत की सृष्टि आदि का, जो श्री हरि की लीला मात्र है, वर्णन करूँगा; सुनो।
श्री हरि ही स्वर्ग आदि के रचयिता हैं। सृष्टि और प्रलय आदि उन्हीं के स्वरुप हैं। सृष्टि के आदि कारण (Srishti ki rachna) भी वे ही हैं। वे ही निर्गुण हैं और वे ही सगुण हैं। सबसे पहले सत्स्वरूप अव्यक्त ब्रह्म ही था; उस समय न तो आकाश था और न रात-दिन आदि का ही विभाग था। तदनन्तर सृष्टि काल में परम पुरुष श्री विष्णु ने प्रकृति में प्रवेश करके उसे क्षुब्ध (विकृत) कर दिया। फिर प्रकृति से महत्तत्त्व और उससे अहंकार प्रकट हुआ। अहंकार तीन प्रकार का है – वैकारिक (सात्त्विक), तेजस (राजस) और भूतादि रूप तामस। तामस अहंकार से शब्द-तन्मात्रा वाला आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश से स्पर्श-तन्मात्रा वाले वायु का प्रादुर्भाव (उत्पन्न) हुआ। वायु से रूप-तन्मात्रावाला अग्नि तत्त्व प्रकट हुआ। अग्नि से रस-तन्मात्रा वाले जल की उत्पत्ति हुई और जल से गन्ध-तन्मात्रा वाली भूमि का प्रादुर्भाव हुआ । यह सब तामस अहंकार से होने वाली सृष्टि है। इन्द्रियाँ तेजस अर्थात राजस अहंकार से प्रकट हुई है। दस इन्द्रियों के अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवीं इन्द्रिय मन ( के भी अधिष्ठाता देवता) – ये वैकारिक अर्थात सात्त्विक अहंकार की सृष्टि हैं। तत्पश्चात नाना प्रकार की प्रजा को उत्पन्न करने की इच्छा वाले भगवान स्वयम्भु ने सबसे पहले जल की ही सृष्टि की और उसमें अपनी शक्ति (वीर्य) का आधान किया। जल को ‘नार’ कहा गया हैं; क्योंकि वह नर से उत्पन्न हुआ है। ‘नार’ (जल) ही पूर्वकाल में भगवान का ‘अयन’ (निवास-स्थान) था; इसलिए भगवान को ‘नारायण’ कहा गया है।
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स्वयम्भू श्रीहरि ने जो वीर्य स्थापित किया था, वह जल मे सुवर्णमय अंड के रूप में प्रकट हुआ। उसमें साक्षात स्वयम्भू भगवान ब्रह्माजी प्रकट हुए, ऐसा हमने सुना हैं। भगवान हिरण्यगर्भ ने एक वर्ष तक उस अंड के भीतर निवास करके उसके दो भाग किये । एक का नाम ‘ध्युलोक’ हुआ और दुसरे का ‘भूलोक’। उन दोनों अंड-खंडों के बीच में उन्होंने आकाश की सृष्टि की। जल के ऊपर तैरती हुई पृथ्वी को रखा और दसों दिशाओं के विभाग किये। फिर सृष्टि की इच्छा (Srishti ki rachna) वाले प्रजापति ने वहाँ काल, मन, वाणी, काम, क्रोध तथा रति आदि की तत्त रूप से सृष्टि की। उन्होंने आदि में विद्युत्, वज्र, मेघ, रोहित इन्द्रधनुष, पक्षियों तथा पर्जन्य का निर्माण किया। तत्पश्चात यज्ञ की सिद्धि के लिये मुख से ऋग, यजु, और सामवेद को प्रकट किया। उनके द्वारा साध्यगणों ने देवताओं का यजन किया। फिर ब्रह्माजी ने अपनी भुज से ऊँचे-नीचे (या छोटे-बड़े) भूतों को उत्पन्न किया, सनत्कुमार की उत्पत्ति की तथा क्रोध से प्रकट होने वाले रुद को जन्म दिया। मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ – इन सात ब्रह्मपुत्रों को ब्रह्माजी ने निश्चय ही अपने मन से प्रकट किया। साधुश्रेष्ठ ! ये तथा रुद्रगण प्रजावर्ग की सृष्टि करते हैं। ब्रह्माजी ने अपने शरीर के दो भाग किये। आधे भाग से वे पुरुष हुए और आधे से स्त्री बन गये; फिर उस नारी के गर्भ से उन्होंने प्रजाओं की सृष्टि की। (ये ही स्वायम्भुव मनु तथा शतरूपा के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनसे ही मानवीय सृष्टि (Srishti ki rachna) हुई।)।
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