राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर-पूर्व के राज्य (North-East State) और वहां के लोगों की चर्चा गाहे-बगाहे होना आजाद भारत में दस्तूर रहा है। लेकिन, हाल के सालों में उत्तर-पूर्व का एक राज्य असम (Assam) और वहां से आने वाले कुछ लोग राष्ट्रीय स्तर पर लगातार सुर्खियों में रहे हैं। इनमें से दो नाम, एक रंजन गोगोई (Ranjan Gogoi) और दूसरा हिमंत बिस्वा सरमा (Himanta Biswa Sarma) का हैं। एक सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की जिम्मेदारी से मुक्त होने के बाद उच्च सदन में हैं। दूसरे असम के 15वें मुख्यमंत्री (Assam Chief Minster) बन गए हैं। दोनों की पृष्ठभूमि कांग्रेसी रही है, लेकिन सुर्खियां ‘काम काज’ ने दी।
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कांग्रेसी मुख्यमंत्री के पुत्र रहे गोगोई पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर जब चर्चा में आए, तब विपक्षियों के आंखों के तारे हो गए। वे सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के उन चार न्यायाधीशों में थे, जिन्होंने पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस कर शीर्ष न्यायालय की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए थे। बाद में वे सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के अगुआ भी रहे, जिसने राम मंदिर मामले में ऐतिहासिक भूल को सुधारते हुए बहुप्रतीक्षित फैसला सुनाया। उसके बाद उन्हें राज्यसभा के लिए नामित किया गया। तब उन्हें उसी विपक्षियों के आंखों का कांटा बना दिया और उसके बाद की सारी कहानी आप जानते ही हैं।
हिमंत बिस्वा सरमा की राजनीति में एंट्री असम के कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे हितेश्वर सैकिया (Hiteswar Saikia) ने कराई। पहला विधानसभा चुनाव वे हार गए। 2001 से लगातार जीत रहे हैं। तरुण गोगोई के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार में मंत्री भी रहे और इसी दौरान असम की राजनीति में उनका उभार हुआ। फिर समय ने पलटा खाया। केंद्र की तरह असम में भी कांग्रेस के दुर्दिन शुरू हुए। सरमा राज्य में पार्टी की कमान चाहते थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लिहाजा वे बीजेपी में चले गए। 2016 का असम चुनाव बीजेपी ने लड़ा तो पीएम मोदी ने नारा दिया। ‘असम का आनंद, सर्बानंद’। पार्टी ने पहली बार विधानसभा चुनावों में सफलता हासिल की और सर्बानंद के नेतृत्व में सरकार बनी। हिमंत बिस्वा सरमा भी इस सरकार में शामिल थे। बीजेपी ने उन्हें पूर्वोत्तर में कई और मोर्चों पर लगाया और उन्होंने रिजल्ट भी दिया। लेकिन, बीजेपी की परंपरा को देखते यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि उन्हें राज्य में पार्टी कभी मुख्य कमान सौंपेगी। लेकिन, इस बार ऐसा हुआ। वजह?
मोटे तौर पर देखें, जैसा कि सामान्य बातचीत में लोग बताते भी हैं कि सरमा ने खुद को बार-बार इस पद का हकदार साबित किया है, इसलिए उन्हें मौका मिला है। यह भी सच है कि ‘मियां मुस्लिम का वोट नहीं चाहिए’ जैसे बयानों से वे बीजेपी की रणनीति को असम मुखर होकर धार देते रहे हैं। सीएए का मसला हो या बदरुद्दीन अजमल पर हमला, पार्टी ने हर मौके पर सरमा को ही आगे किया। दूसरे दलों से आए कई लोग पहले भी बीजेपी की संस्कृति में इस तरह रचे-बसे हैं। बावजूद, उन्हें शीर्ष कमान से दूर रखा गया। वजह वैचारिक प्रतिबद्धता रही। अब तक माना जाता रहा है कि शुरू से संगठन के साथ जुड़े लोगों जैसी विचार और संगठन के प्रति प्रतिबद्धता बाहर से आए लोगों में नहीं हो सकती। यानी ऐसे लोग हर टेस्ट में सफल रहने के बावजूद संशय की नजरों से देखे गए। मणिपुर के एन बिरेन सिंह जैसे एकाध अपवाद रहे हैं। लेकिन वे सिर्फ इस वजह से कि ऐसे राज्यों में बीजेपी ने सत्ता ही बाहर से आए लोगों के दम पर पाई। इन राज्यों में जमीन पर उसका कोई खास आधार नहीं था और न कोई जनाधार वाला चेहरा। असम इस तरह का राज्य नहीं रहा है। वहां दशकों से बीजेपी संघर्षरत रही है। उसका संगठन है। संगठन ने कई नेता पैदा किए हैं। सरमा के आने से पहले भी राज्य में कुछेक उल्लेखनीय सफलताएं बीजेपी हासिल कर चुकी थी।
फिर भी असम में सत्ता में वापसी करने वाली पहली गैर कांग्रेसी सरकार के मुखिया का चेहरा बदल दिया गया है। इस फैसले से बीजेपी ने स्पष्ट कर दिया है कि वह कमान देने के मामले में भी अब पुरानी बीजेपी (BJP) की रीति-नीति से आगे निकल चुकी है। इससे सचिन पायलट (Sachin Pilot) जैसे जनाधार वाले नेताओं को जो अपनी मूल पार्टी में उपेक्षित हैं, एक तरह से संदेश दिया गया है कि आप हमारे साथ आइए। खुद को साबित करिए और नेतृत्व की भूमिका लेकर जाइए। यह ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) जैसों को भी बीजेपी के लिए पसीना बहाने को प्रोत्साहित करेगा। इस एक फैसले की वजह से आने वाले समय में कई राज्यों में विपक्ष के कुछ संभावनाशील चेहरे बेहिचक कमल थामे दिख सकते हैं!
एक राजनीतिक दल के तौर, एक ऐसी पार्टी के तौर पर जो राष्ट्रव्यापी फैलाव के लिए हर सेकेंड जोर लगा रही है, जो पूरे भारत पर छाने के लिए छटपटा रही हो और इस सपने को पूरा करने के लिए एक पल को भी रुकने को तैयार नहीं हो, यह बेहतरीन फैसला है। लेकिन, एक संगठन के लिए, एक कैडर आधारित दल के लिए ऐसे फैसले लंबे समय में कितने हितकारक होंगे यह फिलहाल स्पष्ट नहीं दिखता है। सरमा को कमान सौंपकर जिस मुस्कुराहट के साथ सर्बानंद सोनोवाल (Sarbananda Sonowal) ने विदाई ली है, क्या कल को सरमा भी यही बड़प्पन दिखा पाएंगे? यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि सक्षम होने के बावजूद, मुख्यमंत्री रहने के बावजूद, शीर्ष नेतृत्व के प्रिय होने के बावजूद, सर्बानंद ने पूरे पांच साल सरमा को मंच पर बने रहने का हर मौका दिया, जिसके वे हकदार भी थे। लेकिन क्या ऐसा करने का साहस सरमा में भी है?
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ये मूल सवाल हैं जिनसे बीजेपी (BJP) भविष्य में जूझती दिख सकती है। हमारे सामने कांग्रेस (Congress) का इतिहास है। जब-जब उसने उस चेहरे को बदलने की कोशिश की जिसके नेतृत्व में पार्टी ने सत्ता में वापसी की तो उसने उस राज्य में पार्टी की कब्र खोदने में भरपूर योगदान दिया। किसी ने पर्दे के पीछे से तो किसी ने खुलेआम बगावत कर। नतीजतन, धीरे-धीरे कांग्रेस राज्यों में खत्म होती गई। ऐसे में सरमा को मुख्यमंत्री (Chief Minister) पद के लिए चुनना बीजेपी (BJP) के लिए अवसर भी है और चुनौती भी। यह चुनौती कल को आपदा नहीं बने यह इस बात पर निर्भर करेगा कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने ऐसे किसी भी संभावित खतरे से निपटने के लिए क्या और कितनी तैयारी की है?