भक्तो की कहानी (Bhakto ki New Kahaniyan in Hindi):-
प्राचीन काल की बात है। आजकल जहाँ श्री बालाजी का मन्दिर है, वहाँ से थोडी दूर एक चक्र पुष्करिणी नाम का तीर्थ था। उसके तट पर श्री वत्सगोत्रीय पद्मनाभ नाम के ब्राह्मण निवास करते थे। भगवान के नाम का जप, भगवान का स्मरण और चिन्तन यही पद्मनाभ के जीवन का व्रत था। वह अपने सुख दुख की उन्हे कभी चिन्ता नहीं करते थे परन्तु दूसरे के दुख की कल्पना से ही उनका हृदय भर आता था। दीन-दुखियो के प्रति उनके हृदय मे बहुत दया थी।
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सभी इन्द्रियाँ उनके वश मे थी। कभी वे सूखे पत्ते खा लेते, तो कभी पानी पर ही निर्वाह कर लेते और कभी कभी तो भगवान के ध्यान मे इतने तन्मय हो जाते कि उन्हे न तो शरीर की सुध रहती थी और न ही भूख प्यास की। उनका हृदय भगवान के दर्शन के लिये छटपटा रहा था। वह केवल अपने प्रियतम प्रभु को प्राप्त करना चाहते थे। उनके हृदय मे आशा और निराशा के भयंकर तूफान उठा करते थे। कभी वे सोचने लगते कि “भगवान बड़े दयालु है, वे अवश्य ही मुझे मिलेगे, मै उनके चरणो पर लोट जाऊँगा, अपने प्रेमाश्रुओ से उनके चरण भिगो दूंगा, वे अपने कर कमलो से मुझे उठाकर हृदय से लगा लेगे, मेरे सिर पर हाथ रखेगे, मुझे अपना कहकर स्वीकार करेगें। कितना सौभाग्यमय होगा वह क्षण, कितना मधुर होगा उस समय का जीवन वे कहेगें वरदान मांगो और मैं कहूँगा ‘मुझे कुछ नहीं चाहिये, मैं तो बस तुम्हारी सेवा करूँगा, तुम्हे देखा करूँगा । तुम मुझे भूल जाओ या याद रखो, मैं तुम्हे कभी नहीं भूलूँगा। ऐसी भावना करते करते पद्मनाभ आनन्द विभोर हो जाते और उनका शरीर रोमांच से भर जाता और ऑखो से ऑसू गिरने लगते। उनकी यह प्रेम-मुग्ध अवस्था बहुत देर तक रहती थी। वे सारे संसार को भूलकर प्रभु की सेवा भक्ति मे लगे रहते थे। कभी कभी उनके मन मे ठीक इसके विपरीत भावना होने लगती थी कि कहाँ मै एक दीन हीन क्षुद्र प्राणी, मलिनहृदय वाला और कहाँ पूरे ब्रह्माण्डो के अधिपति भगवान। मुझ जैसे पापी के हृदय मे वे क्यो आने लगे ? मैने ऐसी कौन सी साधना की है, जिसे खुश हो वे मुझे दर्शन देगें। मुझे न तो जप आता है न ही तप आता है, न व्रत और न ही समाधि आती है। जिस हृदय से भगवान का चिन्तन करना चाहिये, उस हृदय से संसार का चिन्तन करता हूँ। यह तो अपराध है, इसका दण्ड तो मुझे मिलना ही चाहिये। मैं दुख की ज्वाला मे झुलस रहा हूँ, संसार मे विषयो के लिये भटक रहा हूँ, फिर भी भगवत प्राप्ति की आशा है।
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कई बार निराशा इतनी बढ जाती कि उन्हें अपना जीवन भार के समान लगता था। कभी-कमी तो वह मूछित तक हो जाते थे और बेहोशी मे ही पुकारने लगते-हे प्रभु, हे स्वामी ! क्या तुम मुझे अपने दर्शन नही दोगे। इसी प्रकार रोते-रोते, बिलखते-बिलखते मर जाना ही क्या मेरे भाग्य मे लिखा है। मैं मृत्यु से नहीं डरता, इस नीच जीवन का अन्त हो जाय वही अच्छा है। परतु मैं तुम्हे देख नही पाऊँगा। न जाने कितने जन्मो के बाद तुम्हारे दर्शन हो सकेगे। मेरी यह करूण पुकार क्या तुम्हारे विश्वव्यापी कानो तक नहीं पहुँचती ‘ अपना लो, प्रभु ! इस प्रकार प्रार्थना करते करते वे चेतना शून्य हो जाते।
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एक दिन उनकी यह तपस्या पराकाष्ठा तक पहुँच गयी। उन्होने सच्चे हृदय से, सम्पूर्ण शक्ति से भगवान से प्रार्थना की हे प्रभु ! अब मुझे अधिक मत तरसाओ तुम्हारे दर्शन की आशा मे अब और कितने दिनो तक जीवित रहूँगा ‘ एक एक पल कल्प के समान बीत रहा है, संसार सूना दीखता है और वे ऑखे किस काम की, जिन्होने आज तक तुम्हारे दर्शन नही किये। अब इनका फूट जाना ही अच्छा है। यदि इस जीवन मे तुम नहीं मिल सकते तो इसे नष्ट कर दो। मुझे स्त्री-पुत्र,धन-जन, लोक-परलोक कुछ नहीं चाहिये। मुझे तो तुम्हारा दर्शन चाहिये, तुम्हारी सेवा चाहिये। एक बार तुम मुझे अपना स्वीकार कर लो बस इतना ही चाहिये ।
भगवान के धैर्य की भी एक सीमा है। वे अपने प्रेमियो से कब तक छिप सकते हैं। ये तो सर्वदा, सब जगह, सबके पास ही रहते हैं, केवल प्रकट होने का अवसर ढूँढा करते है। जब देखते है कि मेरे प्रकट हुए बिना अब काम नहीं चल सकता, तब उसी क्षण प्रकट हो जाते हैं। वे तो पद्मनाभ के पास पहले से ही थे, उनके तप, उत्कण्ठा और प्रार्थना को देख-देख कर मुग्ध हो रहे थे। जब उनकी अवधि पूरी हो गयी, तब वे पद्मनाभ ब्राह्मण के सम्मुख प्रकट हो गये। सारा स्थान भगवान की दिव्य अंग ज्चोति से जगमगा उठा। पद्मनाभ की पलके उस प्रकाश को रोक नहीं सकी। सहस्र सूर्यो के समान दिव्य प्रकाश और उसके भीतर शंख, चक्र, गदा पद्मधारी चतुर्भुज भगवान खडे थे। भगवान को देखकर हृदय शीतल हो गया। पद्मनाभ का सम्पूर्ण हृदय उन्मुक्त होकर भगवान के कृपा पूर्ण नेत्रो से वरसती हुई प्रेम धारा मे डूबने लगा। ऐसा लग रहा था मानो जन्म जन्म की अभिलाषा पूरी हो गयी। भगवान खडे खडे केवल मुसकरा रहे थे।
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कुछ क्षणो तक निस्तब्ध रहकर पद्मनाभ ने स्तुति की प्रभु ! आप ही मेरे, निखिल जगत के स्वामी है, सम्पूर्ण ऐश्वर्य और माधुर्य आपके ही आश्रित हैं। आप पतित पावन है, आपके स्मरण मात्र से ही पापो का नाश हो जाता है। आप घट घट मे व्यापक है, इस जगत के बाहर और भीतर केवल आप ही है। ब्रह्मा आदि देवता भी आपका रहस्य नही जानते, केवल आपके चरणो मे भक्ति भाव से नम्न होकर प्रणाम करते है। आप क्षीर सागर मे शयन करते रहते हैं, फिर भी अपने भक्तों की विपत्ति का नाश करने के लिये सर्वत्र चक्रधारी रूप मे विद्यमान रहते है। भक्त आपके है और आप भक्तों के है। जिसने आपके चरणो मे अपना सिर झुकाया उसको आपने समस्त विपत्तियो से बचाकर परमानन्दमय अपना धाम दिया। मैं आपका हूँ, आपके चरणो मे समर्पित हूँ, नत मस्तक हूँ।’ इतना कहकर पद्मनाभ मौन हो गये।
अब भगवान की बारी आयी। वे जानते थे कि पद्मनाभ निष्काम भक्त हैं। इनके मन मे न तो संसार के भोगो की बात है और न मुक्ति की इच्छा है। इसलिये उन्होने पद्मनाभ से वर मांगने को नहीं कहा। उनके मन की स्थिति जानकर भगवान ने कहा- हे महाभाग ब्राह्मणदेव ! मैं जानता हूँ कि तुम्हारे हृदय मे केवल मेरी ही सेवा की इच्छा है। इसलिए तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो । कल्पपर्यन्त मेरी सेवा करते हुए यहीं निवास करो और अन्त मे तो तुम्हे मेरे पास आना ही पड़ेगा। इतना कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये और पद्मनाभ भगवान की शारीरिक तथा मानसिक सेवा करते हुए अपना सर्वश्रेष्ठ आनन्दमय जीवन व्यतीत करने लगे।
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इसी प्रकार भगवान की सेवा पूजा करते हुए पद्मनाभ को अनेको वर्ष बीत गये। वे एक दिन भगवान का स्मरण करते हुए उनकी पूजा कर रहे थे। इसी समय एक भयकंर राक्षस ने उन पर आक्रमण कर दिया। उन्हे अपने शरीर का मोह नहीं था। राक्षस खा जायगा, इस कल्पना से उनके मन में यह प्रश्न अवश्य उठा कि तब क्या भगवान ने मुझे अपनी सेवा पूजा का जो अवसर दिया है, वह आज ही इसी क्षण समाप्त हो जायगा। भगवान ने मुझे जो एक कल्प तक पूजा करने का वरदान दिया है, यह क्या झूठा हो जायगा ? यह तो बड़े दुःख की बात है। यह सोचकर उन्होंने भगवान से प्रार्थना की। भगवान ने भक्त पद्मनाभ की रक्षा के लिये अपने प्रिय सुदर्शन चक्र को भेज दिया। चक्र का तेज कोटि-कोटि सूर्यों के समान है। भक्तों के भय को जला डालने के लिये आग की भीषण लपटें उससे निकला करती हैं। चक्र की तेजोमय मूर्ति देखकर वह राक्षस भयभीत हो गया और ब्राह्मण को छोड़कर बड़े वेग से भागा परंतु सुदर्शन उसे कहाँ छोड़ने वाले थे। इन्हें उस राक्षस का भी तो उद्धार करना ही था। यह राक्षस आज से सोलह वर्ष पहले गन्धर्व था। उसका नाम था सुन्दर। वशिष्ठजी के शाप से राक्षस हो गया था। इसकी स्त्रियों के प्रार्थना करने पर वशिष्ठजी ने कहा था कि ‘यह राक्षस तो होगा, परंतु आज से सोलहवें वर्ष जब वह भगवान के भक्त पद्मनाभ पर आक्रमण करेगा, तब सुदर्शन चक्र इसका उद्धार होगा। आज यही सोलहवाँ वर्ष पूरा होने वाला था। राक्षस बड़े वेग से भाग रहा था, परंतु सुदर्शन चक्र से बचकर कहाँ जा सकता था। देखते ही देखते सुदर्शन चक्र ने उसका सिर काट लिया और क्षण भर में यह राक्षस गन्धर्ष बन गया।
दिव्य शरीर, दिव्य वस्त्र एवं दिव्य आभूषणों से युक्त होकर सुन्दर ने सुदर्शन चक्र को प्रणाम करते हुए उनकी स्तुति की। ततपश्चात दिव्य विमान पर सवार होकर अपने लोक की यात्रा की। भक्त पद्मनाभ ने सुन्दर के गन्धर्वलोक में चले जाने पर सुदर्शन चक्र की स्तुति की। सुदर्शन च्रक ने भक्त पद्मनाभ की प्रार्थना स्वीकार की और कहा- भक्तवर ! तुम्हारी प्रार्थना कभी व्यर्थं नहीं हो सकती, क्योंकि तुम भगवान के परम कृपा पात्र हो। मैं यहीं तुम्हारे समीप ही सर्वदा निवास करूँगा। तुम निर्भय होकर भगवान की सेवा पूजा करो। अब तुम्हारी उपासना में किसी प्रकार का विघ्न नहीं पड़ सकता। भक्त पद्मनाभ को इस प्रकार वरदान देकर सुदर्शन चक्र सामने की पुष्करिणी में प्रवेश कर गये। इसी से उसका नाम चक्रतीर्थ हुआ।
भगवान की कृपा का प्रत्यक्ष अनुभव करके भक्त पद्मनाभ का हृदय प्रेम और आनन्द से भर गया। वह अब और भी तन्मयता तथा तत्परता से भगवान की सेवा करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगे। ऐसे प्रेमी भक्तों का जीवन ही धन्य है, क्योंकि ये पल पल पर और पग पग पर भगवान की अनन्त कृपा का अनुभव करके मस्त रहा करते हैं।
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