Shree Saraswati Suktam Arth Sahit in Hindi

इस विधि से श्री सरस्वती सूक्त का पाठ करने से प्राप्त होगा बह्मज्ञान॥ Shree Saraswati Suktam Arth Sahit in Hindi

सूक्त

वैदिक परम्परा में सरस्वती रहस्योपनिषद् के अनुसार सरस्वती की उपासना करने से ब्रह्मज्ञान प्राप्ति की प्राप्ति बहुत सरलता पूर्वक होती है। महर्षि आश्वलायन ने माता सरस्वती की उपासना से ही तत्त्व ज्ञान प्राप्त किया था। यह स्तवन ऋग्वेद के उपनिषद् भाग के अन्तर्गत है। इसका आश्रय लेने वाले को माँ सरस्वती की कृपा से विद्या प्राप्ति में आ रहे विघ्न विशेष रूप से दूर होते हैं तथा जड़ता समाप्त होकर माता सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। माँ सरस्वती का वैदिक स्तवन वैदिक सूक्त (Shree Saraswati Suktam Arth Sahit) के रूप में यहाँ अनुवाद सहित प्रस्तुत किया जा रहा है-

श्री सरस्वती सूक्त अर्थ सहित ॥ Shree Saraswati Suktam Arth Sahit in Hindi

 हरिः ॐ॥ कथा है कि एक समय ऋषियों ने भगवान् आश्वलायन की विधि पूर्वक पूजा करके पूछा- ‘भगवन् ! जिससे ‘तत्’ पद के अर्थभूत परमात्मा का स्पष्ट बोध होता है, वह ज्ञान किस उपाय से प्राप्त हो सकता है? जिस देवता की उपासना से आपको तत्त्व का ज्ञान हुआ है, उसे बतलाइये।’ भगवान् आश्वलायन बोले-‘मुनिवरो! बीज मन्त्र से युक्त दस ऋचाओं सहित सरस्वती-दशश्लोकी महामन्त्र के द्वारा स्तुति और जप करके मैंने परासिद्धि प्राप्त की है।’ ऋषियों ने पूछा-‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले मुनीश्वर! किस प्रकार और किस ध्यान से आपको सारस्वती मन्त्र की प्राप्ति हुई है तथा जिससे भगवती महासरस्वती प्रसन्न हुई हैं, वह उपाय बतलाइये।’ तब वे प्रसिद्ध आश्वलायन मुनि बोले-

ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि। वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः। अनेनाधीतेनाहोरात्रान् संदधाम्यृतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम्॥ ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!! [ऋग्वेदीय]
अर्थ- ॐ मेरी वाणी मन में प्रतिष्ठित हो, मेरा मन वाणी में प्रतिष्ठित हो। हे स्वप्रकाश ब्रह्म चैतन्यात्मन् ! मेरे लिये अविद्या दूर करने को आप प्रकट हों, वेद का तत्त्व मेरे लिये लाइये। मेरा सुना हुआ मुझे न छोड़े। इस पढ़े हुए को मैं दिन-रात धारण करूँ। परमार्थ में सत्य बोलूँ। व्यवहार में सत्य बोलूँ। वह (ब्रह्म) मेरी रक्षा करे, वह आचार्य की रक्षा करे। रक्षा करे मेरी, रक्षा करे आचार्य की, रक्षा करे आचार्यकी। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

अस्य श्रीसरस्वतीदशश्लोकीमहामन्त्रस्य अहमाश्वलायन ऋषिः। अनुष्टुप् छन्दः। श्रीवागीश्वरी देवता। यद्वागिति बीजम्। देवीं वाचमिति शक्तिः। प्र णो देवीति कीलकम्। विनियोगस्तत्प्रीत्यर्थे। श्रद्धा मेधा प्रज्ञा धारणा वाग्देवता महासरस्वतीत्येतैरङ्गन्यासः॥
अर्थ- इस श्री सरस्वती-दशश्लोकी महामन्त्र का मैं आश्वलायन ही ऋषि हूँ, अनुष्टुप् छन्द है, श्रीवागीश्वरी देवता हैं, ‘यद्वाग्’ यह बीज है, ‘देवीं वाचम्’ यह शक्ति है, ‘प्र णो देवी’ यह कीलक है, श्रीवागीश्वरी देवता के प्रीत्यर्थ इसका विनियोग है। श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, धारणा, वाग्देवता तथा महासरस्वती इन नाम-मन्त्रों के द्वारा अंगन्यास किया जाता है। (जैसे- ॐ श्रद्धायै नमो हृदयाय नमः, ॐ मेधायै नमः शिरसे स्वाहा, ॐ प्रज्ञायै नमः शिखायै वषट्, ॐ धारणायै नमः कवचाय हुम्, ॐ वाग्देवतायै नमो नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ महासरस्वत्यै नमः अस्त्राय फट्।)

ध्यान

नीहारहारघनसारसुधाकराभां
कल्याणदां कनकचम्पकदामभूषाम्।
उत्तुङपीनकुचकुम्भमनोहराङ्गी
वाणी नमामि मनसा वचसा विभूत्यै॥
अर्थ- हिम, मुक्ताहार, कपूर तथा चन्द्रमा की आभा के समान शुभ्र कान्तिवाली, कल्याण प्रदान करने वाली, सुवर्ण सदृश पीत चम्पक पुष्पों की माला से विभूषित, उठे हुए सुपुष्ट कुचकुम्भों से मनोहर अंग वाली वाणी अर्थात् सरस्वती देवी को मैं विभूति (अष्टविध ऐश्वर्य एवं निःश्रेयस) के लिये मन और वाणी द्वारा नमस्कार करता हूँ।

ॐ प्र णो देवी सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती।
धीनामवित्र्यवतु॥१॥
अर्थ- ‘ॐ प्र णो देवी’– इस मन्त्र के भरद्वाज ऋषि हैं, गायत्री छन्द है, श्री सरस्वती देवता हैं। ॐ नम:– यह बीज, शक्ति और कीलक तीनों हैं। इष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये इसका विनियोग है। मन्त्र के द्वारा अंगन्यास होता है।
‘वस्तुतः वेदान्त शास्त्र का अर्थभूत ब्रह्मतत्त्व ही एकमात्र जिनका स्वरूप है और जो नाना प्रकार के नाम रूपों में व्यक्त हो रही हैं, वे सरस्वती देवी मेरी रक्षा करें।’
ॐ दान से शोभा पाने वाली, अन्न से सम्पन्न तथा स्तुति करने वाले उपासकों की रक्षा करने वाली सरस्वती देवी हमें अन्न से सुरक्षित करें (अर्थात् हमें अधिक अन्न प्रदान करें) ॥१॥

‘ह्रीं’ आ नो दिवो बृहतः पर्वतादा
सरस्वती यजता गन्तु यज्ञम्।
हवं देवी जुजुषाणा घृताची
शग्मां नो वाचमुशती श्रृणोतु ॥२॥
अर्थ- ‘आ नो दिवः०’– इस मन्त्र के अत्रि ऋषि हैं, त्रिष्टुप् छन्द है, सरस्वती देवता हैं, ह्रीं- यह बीज, शक्ति और कीलक तीनों है। अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिये इसका विनियोग है। इसी मन्त्र के द्वारा अंगन्यास करे।
‘अंगों और उपांगों के सहित चारों वेदों में जिन एक ही देवता का स्तुतिगान होता है, जो ब्रह्म की अद्वैत-शक्ति हैं, वे सरस्वती देवी हमारी रक्षा करें।’
ह्रीं- हम लोगों के द्वारा यष्टव्य सरस्वती देवी प्रकाशमय घलोक से उतरकर महान् पर्वताकार मेघों के बीचमें होती हुई हमारे यज्ञ में आगमन करें। हमारी स्तुति से प्रसन्न होकर वे देवी स्वेच्छा पूर्वक हमारे सम्पूर्ण सुखकर सोत्रों को सुनें ॥२॥

‘श्रीं’ पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती।
यज्ञं वष्टु धिया वसुः॥३॥
अर्थ- ‘पावका न:’– इस मन्त्र के मधुच्छन्दा ऋषि हैं, गायत्री छन्द है, सरस्वती देवता हैं, ‘श्रीं’ यह बीज, शक्ति और कीलक तीनों है। इष्टार्थ सिद्धि के लिये इस मन्त्र का विनियोग है। मन्त्र के द्वारा ही अंगन्यास करे।
‘जो वस्तुत: वर्ण, पद, वाक्य तथा इनके अर्थों के रूप में सर्वत्र व्याप्त हैं, जिनका आदि और अन्त नहीं है, जो अनन्त स्वरूप वाली हैं, वे सरस्वती देवी मेरी रक्षा करें।’
श्रीं– जो सबको पवित्र करने वाली, अन्न से सम्पन्न तथा कर्मो द्वारा प्राप्त होने वाले धन की उपलब्धि में कारण हैं, वे सरस्वती देवी हमारे यज्ञ में पधारने की कामना करें (अर्थात् यज्ञ में पधारकर उसे पूर्ण करने में सहायक बनें)॥३॥

‘ब्लूं’ चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती
सुमतीनाम् यज्ञं दधे सरस्वती ॥४॥
अर्थ- ‘चोदयित्री०’– इस मन्त्र के मधुच्छन्दा ऋषि हैं, गायत्री छन्द है, सरस्वती देवता हैं। ‘ब्लूं’– यह बीज, शक्ति और कीलक तीनों है। अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये विनियोग है। मन्त्र के द्वारा ही अंगन्यास करे।
‘जो अध्यात्म और अधिदैवरूपा हैं तथा जो देवताओं की सम्यक् ईश्वरी अर्थात् प्रेरणात्मिका शक्ति हैं, जो हमारे भीतर मध्यमा वाणी के रूपमें स्थित हैं, वे सरस्वती देवी मेरी रक्षा करें।’
‘ब्लूं’– जो प्रिय एवं सत्य वचन बोलने के लिये प्रेरणा देने वाली तथा उत्तम बुद्धि वाले क्रियापरायण पुरुषों को उनका कर्तव्य सुझाती हुई सचेत करने वाली हैं, उन सरस्वती देवी ने इस यज्ञ को धारण किया है॥४॥

‘सौः’ महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना।
धियो विश्वा वि राजति॥५॥
अर्थ- ‘महो अर्णः’– इस मन्त्र के मधुच्छन्दा ऋषि हैं, गायत्री छन्द है, सरस्वती देवता हैं। ‘सौः’ यह बीज, शक्ति और कीलक तीनों है। मन्त्र के द्वारा न्यास करे।
‘जो अन्तर्यामीरूप से समस्त त्रिलोकी का नियन्त्रण करती हैं, जो रुद्र-आदित्य आदि देवताओं के रूप में स्थित हैं, वे सरस्वती देवी हमारी रक्षा करें।’
सौः– (इस मन्त्र में नदीरूपा सरस्वती का स्तवन किया गया है) नदी रूप में प्रकट हुई सरस्वती देवी अपने प्रवाह रूप कर्म के द्वारा अपनी अगाध जलराशि का परिचय देती हैं और ये ही अपने देवता रूप से सब प्रकार की कर्तव्य विषयक बुद्धि को उद्दीप्त (जाग्रत्) करती हैं॥५॥

‘ऐं’ चत्वारि वाक् परिमिता पदानि
तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ॥६॥
अर्थ- ‘चत्वारि वाक्०’– इस मन्त्र के उचथ्यपुत्र दीर्घतमा ऋषि हैं, त्रिष्टुप् छन्द है, सरस्वती देवता हैं, ऐं– यह बीज, शक्ति और कीलक तीनों है। इष्टसिद्धि के लिये इसका विनियोग है। मन्त्र के द्वारा न्यास करे।
‘जो अन्तर्दृष्टि वाले प्राणियों के लिये नाना प्रकार के रूपों में व्यक्त होकर अनुभूत हो रही हैं। जो सर्वत्र एक मात्र ज्ञप्ति-बोध रूप से व्याप्त हैं, वे सरस्वती देवी मेरी रक्षा करें।’
ऐं– वाणी के चार पद हैं अर्थात् समस्त वाणी चार भागों में विभक्त है-परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। इन सबको मनीषी-विद्वान् ब्राह्मण जानते हैं। इनमें तीन-परा, पश्यन्ती और मध्यमा तो हृदयगुहा में स्थित हैं, अतः वे बाहर प्रकट नहीं होतीं। परंतु जो चौथी वाणी वैखरी है, उसे ही मनुष्य बोलते हैं। (इस प्रकार वाणी रूप में सरस्वती देवी की स्तुति है)॥६॥

‘क्लीं’ यद् वाग्वदन्त्यविचेतनानि
राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा।
चतस्त्र ऊर्जं दुदुहे पयांसि
क्व स्विदस्याः परमं जगाम॥७॥
अर्थ- ‘यद्वाग्वदन्ति०’– इस मन्त्र के भार्गव ऋषि हैं, त्रिष्टुप् छन्द है, सरस्वती देवता हैं। क्लीं-यह बीज, शक्ति और कीलक तीनों है। मन्त्र के द्वारा न्यास करे।
‘जो नाम-जाति आदि भेदों से अष्टधा विकल्पित हो रही हैं तथा साथ ही निर्विकल्प स्वरूप में भी व्यक्त हो रही हैं, वे सरस्वती देवी मेरी रक्षा करें।’
क्लीं– राष्ट्री अर्थात् दिव्य भाव को प्रकाशित करने वाली तथा देवताओं को आनन्दमग्न कर देने वाली देवी वाणी जिस समय अज्ञानियों को ज्ञान देती हुई यज्ञ में आसीन (विराजमान) होती हैं, उस समय वे चारों दिशाओं के लिये अन्न और जल का दोहन करती हैं। इन मध्यमा वाक् में जो श्रेष्ठ है, वह कहाँ जाता है ॥७॥

‘सौः’ देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां
विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना
धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु॥८॥
अर्थ- ‘देवीं वाचम्’– इस मन्त्र के भार्गव ऋषि हैं, त्रिष्टुप् छन्द है, सरस्वती देवता हैं, ‘सौ:’– यह बीज, शक्ति और कीलक तीनों है। मन्त्र के द्वारा न्यास करे।
‘व्यक्त और अव्यक्त वाणी वाले देवादि समस्त प्राणी जिनका उच्चारण करते हैं, जो सब अभीष्ट वस्तुओं को दुग्ध के रूप में प्रदान करने वाली कामधेनु हैं, वे सरस्वती देवी मेरी रक्षा करें।’
सौः– प्राण रूप देवों ने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसको अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं। वे कामधेनु तुल्य आनन्ददायक तथा अन्न और बल देने वाली वागरूपिणी भगवती उत्तम स्तुतियों से संतुष्ट होकर हमारे समीप आयें ॥८॥

‘सं’ उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाच
मुत त्वः श्रृण्वन् न श्रृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्मै तन्वं विसस्त्रे
जायेव पत्य उशती सुवासाः॥९॥
अर्थ- ‘उत त्वः’– इस मन्त्र के बृहस्पति ऋषि हैं, त्रिष्टुप् छन्द है, सरस्वती देवता हैं, ‘सं’– यह बीज, शक्ति और कीलक तीनों है। (विनियोग पूर्ववत् है) मन्त्र के द्वारा न्यास करे।
‘जिनको ब्रह्मविद्या रूप से जानकर योगी सारे बन्धनों को नष्ट कर डालते और पूर्ण मार्ग के द्वारा परम पद को प्राप्त होते हैं, वे सरस्वती देवी मेरी रक्षा करें।’
सं– कोई-कोई वाणी को देखते हुए भी नहीं देखता (समझकर भी नहीं समझ पाता), कोई इन्हें सुनकर भी नहीं सुन पाता, किंतु किसी किसी के लिये तो वाग्देवी अपने स्वरूप को उसी प्रकार प्रकट कर देती हैं, जैसे पति की कामना करने वाली सुन्दर वस्त्रों से सुशोभित भार्या अपने को पति के समक्ष अनावृतरूप में उपस्थित करती है॥९॥

‘ऐं’ अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि॥१०॥
अर्थ- अम्बितमे०– इस मन्त्र के गृत्समद ऋषि हैं, अनुष्टुप् छन्द है, सरस्वती देवता हैं, ऐं-यह बीज, शक्ति और कीलक तीनों है। मन्त्र के द्वारा न्यास करे।
‘ब्रह्मज्ञानी लोग इस नाम-रूपात्मक अखिल प्रपंच को जिनमें आविष्टकर पुन: उनका ध्यान करते हैं, वे एकमात्र ब्रह्मस्वरूपा सरस्वती देवी मेरी रक्षा करें।’
ऐं– (परम कल्याणमयी)- माताओं में सर्वश्रेष्ठ, नदियों में सर्वश्रेष्ठ तथा देवियों में सर्वश्रेष्ठ हे सरस्वती देवि! धनाभाव के कारण हम अप्रशस्त (निन्दित) से हो रहे हैं, मातः ! हमें प्रशस्ति (धन-समृद्धि) प्रदान करो॥१०॥

चतुर्मुखमुखाम्भोजवनहंसवधूर्मम।
मानसे रमतां नित्यं सर्वशुक्ला सरस्वती॥१॥
अर्थ- जो ब्रह्माजी के मुखरूपी कमलों के वन में विचरने वाली राजहंसी हैं, वे सब ओर से श्वेत कान्तिवाली सरस्वती देवी हमारे मन रूपी मानस में नित्य विहार करें॥१॥

नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुरवासिनि।
त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे ॥२॥
अर्थ- हे काश्मीरपुर में निवास करने वाली शारदादेवी! तुम्हें नमस्कार है। मैं नित्य तुम्हारी प्रार्थना करता हूँ। मुझे विद्या (ज्ञान) प्रदान करो॥२॥

अक्षसूत्राङ्कुशधरा पाशपुस्तकधारिणी।
मुक्ताहारसमायुक्ता वाचि तिष्ठतु मे सदा॥३॥
अर्थ- अपने चार हाथों में अक्षसूत्र, अंकुश, पाश और पुस्तक धारण करने वाली तथा मुक्ताहार से सुशोभित सरस्वती देवी मेरी वाणी में सदा निवास करें॥३॥

कम्बुकण्ठी सुताम्रोष्ठी सर्वाभरणभूषिता।
महासरस्वतीदेवी जिह्वाग्रे सन्निविश्यताम्॥४॥
अर्थ- शंख के समान सुन्दर कण्ठ एवं सुन्दर लाल ओठों वाली, सब प्रकार के भूषणों से विभूषिता महासरस्वती देवी मेरी जिह्वा के अग्रभाग में सुखपूर्वक विराजमान हों॥४॥

या श्रद्धा धारणा मेधा वाग्देवी विधिवल्लभा।
भक्तजिह्वाग्रसदना शमादिगुणदायिनी॥५॥
अर्थ- जो ब्रह्माजी की प्रियतमा सरस्वती देवी श्रद्धा, धारणा और मेधास्वरूपा हैं, वे भक्तों के जिह्वाग्र में निवास कर शम-दमादि गुणों को प्रदान करती हैं॥५॥

नमामि यामिनीनाथलेखालंकृतकुन्तलाम्।
भवानीं भवसंतापनिर्वापणसुधानदीम्॥६॥
अर्थ- जिनके केश-पाश चन्द्रकला से अलंकृत हैं तथा जो भव-संताप को शमन करने वाली सुधा-नदी हैं, उन सरस्वती रूपा भवानी को मैं नमस्कार करता हूँ॥६॥

यः कवित्वं निरातङ्कं भुक्तिमुक्ती च वाञ्छति।
सोऽभ्यच्चैनां दशश्लोक्या भक्त्या स्तौति सरस्वतीम्॥७॥
अर्थ- जिसे कवित्व, निर्भयता, भोग और मुक्ति की इच्छा हो, वह इन दस मन्त्रों के द्वारा सरस्वती देवी की भक्तिपूर्वक अर्चना करके स्तुति करे॥७॥

तस्यैवं स्तुवतो नित्यं समभ्यर्च्य सरस्वतीम्।
भक्तिश्रद्धाभियुक्तस्य षण्मासात् प्रत्ययो भवेत्॥८॥
अर्थ- भक्ति और श्रद्धापूर्वक सरस्वती देवी की विधि पूर्वक अर्चना करके नित्य स्तवन करने वाले भक्त को छ: महीने के भीतर ही उनकी कृपा की प्रतीति हो जाती है॥८॥

ततः प्रवर्तते वाणी स्वेच्छया ललिताक्षरा।
गद्यपद्यात्मकैः शब्दैरप्रमेयैर्विवक्षितैः॥९॥
अर्थ- तदनन्तर उसके मुख से अनुपम अप्रमेय गद्य-पद्यात्मक शब्दों के रूप में ललित अक्षरों वाली वाणी स्वयमेव निकलने लगती है॥९॥

अश्रुतो बुध्यते ग्रन्थः प्रायः सारस्वतः कविः।
इत्येवं निश्चयं विप्राः सा होवाच सरस्वती॥१०॥
अर्थ- प्रायः सरस्वती का भक्त कवि बिना दूसरों से सुने हुए ही ग्रन्थों के अभिप्राय को समझ लेता है। ब्राह्मणो! इस प्रकार का निश्चय सरस्वती देवी ने अपने श्री मुख से ही प्रकट किया था।॥१०॥

आत्मविद्या मया लब्धा ब्रह्मणैव सनातनी।
ब्रह्मत्वं मे सदा नित्यं सच्चिदानन्दरूपतः॥११॥
अर्थ- ब्रह्मा के द्वारा ही मैंने सनातनी आत्म विद्या को प्राप्त किया और सत्चित्-आनन्द से मुझे नित्य ब्रह्मत्व प्राप्त है॥११॥

प्रकृतित्वं ततः सृष्टिं सत्त्वादिगुणसाम्यतः।
सत्यमाभाति चिच्छाया दर्पणे प्रतिबिम्बवत्॥१२॥
अर्थ- तदनन्तर सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों के साम्य से प्रकृति की सृष्टि हुई। दर्पण में प्रतिबिम्ब के समान प्रकृति में पड़ी चेतन की छाया ही सत्यवत् प्रतीत होती है॥१२॥

तेन चित्प्रतिबिम्बेन त्रिविधा भाति सा पुनः।
प्रकृत्यवच्छिन्नतया पुरुषत्वं पुनश्च ते॥१३॥
अर्थ- उस चेतन की छाया से प्रकृति तीन प्रकार की प्रतीत होती है, प्रकृति के द्वारा अवच्छिन्न होने के कारण ही तुम्हें जीवत्व प्राप्त हुआ है॥१३॥

शुद्धसत्त्वप्रधानायां मायायां बिम्बितो ह्यजः।
सत्त्वप्रधाना प्रकृतिर्मायेति प्रतिपाद्यते॥१४॥
अर्थ- शुद्ध सत्वप्रधाना प्रकृति माया कहलाती है। उस शुद्ध सत्त्वप्रधाना माया में प्रतिबिम्बित चेतन ही अज (ब्रह्मा) कहा गया है॥१४॥

सा माया स्ववशोपाधिः सर्वज्ञस्येश्वरस्य हि।
वश्यमायत्वमेकत्वं सर्वज्ञत्वं च तस्य तु॥१५॥
अर्थ- वह माया सर्वज्ञ ईश्वर को अपने अधीन रहने वाली उपाधि है। माया को वश में रखना, एक (अद्वितीय) होना और सर्वज्ञत्व-ये उन ईश्वर के लक्षण हैं॥१५॥

सात्त्विकत्वात् समष्टित्वात् साक्षित्वाजगतामपि।
जगत्कर्तुमकर्तुं वा चान्यथा कर्तुमीशते॥१६॥
अर्थ- सात्त्विक, समष्टिरूप तथा सब लोकों के साक्षी होने के कारण वे ईश्वर जगत्की सृष्टि करने, न करने तथा अन्यथा करनेमें समर्थ हैं ॥१६॥

यः स ईश्वर इत्युक्तः सर्वज्ञत्वादिभिर्गुणैः।
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरूपकम्॥१७॥
अर्थ- इस प्रकार सर्वज्ञत्व आदि गुणों से युक्त वह चेतन ईश्वर कहलाता है। माया की दो शक्तियाँ हैं-विक्षेप और आवरण॥१७॥

विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादि ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत्।
अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः॥१८॥
अर्थ- विक्षेप-शक्ति लिंग-शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक के जगत की सृष्टि करती है। दूसरी आवरण-शक्ति है, जो भीतर द्रष्टा और दृश्य के भेद को तथा बाहर ब्रह्म और सृष्टि के भेद को आवृत करती है॥१८॥

आवृणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम्।
साक्षिणः पुरतो भातं लिङ्गदेहेन संयुतम्॥१९॥
अर्थ- वही संसार बन्धन का कारण है, साक्षी को वह अपने सामने लिंग शरीर से युक्त प्रतीत होती है॥१९॥

चितिच्छायासमावेशाज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः।
अस्य जीवत्वमारोपात् साक्षिण्यप्यवभासते॥२०॥
अर्थ- कारणरूपा प्रकृति में चेतन की छाया का समावेश होने से व्यावहारिक जगत में कार्य करने वाला जीव प्रकट होता है। उसका यह जीवत्व आरोपवश साक्षी में भी आभासित होता है॥२०॥

आवृतौ तु विनष्टाया भेदे भाते प्रयाति तत्।
तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति॥२१॥

या शक्तिस्तद्वशाद्ब्रह्म विकृतत्वेन भासते।
अत्राप्यावृतिनाशेन विभाति ब्रह्मसर्गयोः॥२२॥
अर्थ- आवरण शक्ति के नष्ट होने पर भेद की स्पष्ट प्रतीति होने लगती है (इससे चेतन का जड़ में आत्मभाव नहीं रहता), अतः जीवत्व चला जाता है तथा जो शक्ति सृष्टि और ब्रह्म के भेद को आवृत करके स्थित होती है, उसके वशीभूत हुआ ब्रह्म विकार को प्राप्त हुआ-सा भासित होता है, वहाँ भी आवरण के नष्ट होने पर ब्रह्म और सृष्टि का भेद स्पष्टरूप से प्रतीत होने लगता है॥२१-२२॥

भेदस्तयोर्विकार: स्यात् सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित्।
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम्॥२३॥
अर्थ- उन दोनों में से सृष्टिमें ही विकार की स्थिति होती है, ब्रह्म में नहीं। अस्ति (है), भाति (प्रतीत होता है), प्रिय (आनन्दमय), रूप और नाम-ये पाँच अंश हैं॥२३॥

आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम्।
अपेक्ष्य नामरूपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः॥२४॥
अर्थ- इनमें अस्ति, भाति और प्रिय- ये तीनों ब्रह्म के स्वरूप हैं तथा नाम और रूप- ये दोनों जगत के स्वरूप हैं। इन दोनों नाम- रूपों के सम्बन्ध से ही सच्चिदानन्द परब्रह्म जगत्- रूप बनता है॥२४॥

समाधिं सर्वदा कुर्याद्धृदये वाथ वा बहिः।
सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि॥२५॥
अर्थ- साधक को हृदय में अथवा बाहर सर्वदा समाधि साधन करना चाहिये। हृदय में दो प्रकार की समाधि होती है-सविकल्प और निर्विकल्प रूप ॥२५॥

दृश्यशब्दानुभेदेन सविकल्पः पुनर्द्विधा।
कामाद्याश्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम्॥२६॥

ध्यायेद् दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः।
असङ्गः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः ॥२७॥

अस्मीतिशब्दविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः।
स्वानुभूतिरसावेशाद् दृश्यशब्दाद्यपेक्षितुः ॥२८॥

निर्विकल्पः समाधिः स्यान्निवातस्थितदीपवत्।
हृदीयं बाह्यदेशेऽपि यस्मिन् कस्मिंश्च वस्तुनि॥२९॥

समाधिराद्यदृङ्मात्रा नामरूपपृथक् कृतिः।
स्तब्धीभावो रसास्वादात् तृतीयः पूर्ववन्मतः॥३०॥
अर्थ- सविकल्प समाधि भी दो प्रकार की होती है- एक दृश्यानुविद्ध और दूसरी शब्दानुविद्ध। चित्त में उत्पन्न होने वाले कामादि विकार दृश्य हैं तथा चेतन आत्मा उनका साक्षी है- इस प्रकार ध्यान करना चाहिये। यह दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि है। मैं असंग, सच्चिदानन्द, स्वयम्प्रकाश, अद्वैतस्वरूप हूँ- इस प्रकार की सविकल्प समाधि शब्दानुविद्ध कहलाती है। आत्मानुभूति- रस के आवेशवश दृश्य और शब्दादि की उपेक्षा करने वाले साधक के हृदय में निर्विकल्प समाधि होती है। उस समय योगी की स्थिति वायु शून्य प्रदेश में रखे हुए दीपक की भाँति अविचल होती है। यह हृदय में होने वाली निर्विकल्प और सविकल्प समाधि है। इसी तरह बाह्य देश में भी जिस किसी वस्तु को लक्ष्य करके चित्त एकाग्र हो जाता है, उसमें समाधि लग जाती है। पहली समाधि द्रष्टा और दृश्य के विवेक से होती है, दूसरी प्रकार की समाधि वह है, जिसमें प्रत्येक वस्तु से उसके नाम और रूप को पृथक् करके उसके अधिष्ठान भूत चेतन का चिन्तन होता है और तीसरी समाधि पूर्ववत् है, जिसमें सर्वत्र व्यापक चैतन्य रसानुभूति जनित आवेश से स्तब्धता छा जाती है॥२६-३०॥

एतैः समाधिभिः षड्भिर्नयेत् कालं निरन्तरम्।
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम्॥३१॥
अर्थ- इन छ: प्रकार की समाधियों के साधन में ही निरन्तर अपना समय व्यतीत करे। देहाभिमान के नष्ट हो जाने और परमात्म-ज्ञान होने पर जहाँ जहाँ मन जाता है, वहीं-वहीं परम अमृतत्व का अनुभव होता है॥३१॥

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् द्रष्टे परावरे॥३२॥
अर्थ- हृदय की गाँठे खुल जाती हैं, सारे संशय नष्ट हो जाते हैं, उस निष्कल और सकल ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर विद्वान पुरुष के समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं॥३२॥

मयि जीवत्वमीशत्वं कल्पितं वस्तुतो नहि।
इति यस्तु विजानाति स मुक्तो नात्र संशयः॥३३॥ 
अर्थ- ‘मुझ में जीवत्व और ईश्वरत्व कल्पित हैं, वास्तविक नहीं’ इस प्रकार जो जानता है, वह मुक्त है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ॥३३॥

॥ॐ वाङ्मे मनसीति शान्तिः॥ (ऋग्वेदीय सरस्वतीरहस्योपनिषद् )

॥ इति श्री सरस्वती सूक्तम्‌ संपूर्णम्‌ ॥ Shree Saraswati Suktam Arth Sahit in Hindi End ॥

 

श्री सरस्वती सूक्त का पाठ कैसे करें? जानिए… Shree Saraswati puja kese kare? Shree Saraswati Suktam Arth Sahit in Hindi

सरस्वती सूक्त (Shree Saraswati Suktam Arth Sahit in Hindi) का वर्णन ऋग्वेदीय सरस्वतीरहस्योपनिषद् में मिलता है सरस्वती सूक्त का पाठ श्रद्धा और विश्वास के साथ करना चाहिए जिससे माता सरस्वती जी बहुत जल्दी प्रसन्न होती हैं और पूजा करने वाले को ब्रह्मज्ञान, सदबुद्धि और शान्ति प्रदान करती है। ज्ञान, बुद्धि की इच्छा रखने वालो को सरस्वती सूक्त का पाठ प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए।

1. सर्व प्रथम सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर अपने नित्य कर्म कर लेने के पश्चात स्नान आदि करके साफ कपड़े पहन ले।

2. अब जहां आप पूजा करना चाहते है वह स्थान साफ कर ले और वहां पीले रंग का कपडा बिछाकर उस पर माता सरस्वती की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें।

3. माता सरस्वती को पीले और सफेद फूल और अन्य सामग्री जैसे- रोली, चावल, चंदन, हल्दी, केसर आदि चढ़ाएं और पीली मिठाई जैसे बेसन के लड्डू या बूंदी का भोग अवश्य लगाएं क्योंकि माता को पीली मिठाईयॉ अति प्रिय है।

4. इसके बाद सरस्वती सूक्त  का पाठ करें और माता सरस्वती की आरती उतारे। माता सरस्वती की आरती आपको इस पोस्ट के नीचे मिल जाएगी।

5. अगर संस्कृत में सरस्वती सूक्त का पाठ न कर पाएं तो हिंदी में सरस्वती सूक्त का पाठ (Shree Saraswati Suktam Arth Sahit in Hindi) करें। साथ ही साथ माता सरस्वती का ध्यान करें। बसंत पचमी को सरस्वती सूक्त का पाठ विधि विधान से पूर्ण करने का विशेष महत्व है।indi

 

सरस्वती सूक्त के लाभ (Saraswati Suktam Benefits in Hindi) –

सरस्वती सूक्त के निम्न लिखित लाभ हैः- Shree Saraswati Suktam Arth Sahit in Hindi

1. सरस्वती सूक्त का पाठ करने से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है जिससे सभी दुखों का अंत हो जाता है।

2. सरस्वती सूक्त का नित्य पाठ साधक कि सोच और निर्णय लेने की क्षमता का अदभुत विकास होता है। जिससे वह अपनी बुरे समय में भी सही निर्णय लेता है।

3. सरस्वती सूक्त का नित्य नियमित रूप से पाठ करने वाला व्यक्ति की बुद्धी का विकास होता है और वह इस मायावी संसार को छोडकर अंत समय में मोक्ष को प्राप्त करता है।

 

इसे भी पढे़- 

आरती > 

लक्ष्मी माता आरती || Lakshmi Ji Ki Aarti in Hindi || Jai Laxmi Mata Ji Ki

चालीसा > 

श्री लक्ष्मी चालीसा हिन्दी अर्थ सहित- Shri Lakshmi Chalisa in Hindi॥ Maatu Lakshmi Kari Kripaa

स्तोत्र और सूक्त >

श्री सूक्त अर्थ सहित || Shree Suktam in Hindi Arth Sahit

श्री कनकधारा स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित|| Shree Kanakadhara Stotram in Hindi Arth Sahit

 

नोट- सरस्वती जी से सम्बन्धित सभी लेख पढने के लिए यहॉ क्लिक करें।

 

Prabhu Darshan- 100 से अधिक आरतीयाँचालीसायें, दैनिक नित्य कर्म विधि जैसे- प्रातः स्मरण मंत्र, शौच विधि, दातुन विधि, स्नान विधि, दैनिक पूजा विधि, त्यौहार पूजन विधि आदि, आराध्य देवी-देवतओ की स्तुति, मंत्र और पूजा विधि, सम्पूर्ण दुर्गासप्तशती, गीता का सार, व्रत कथायें एवं व्रत विधि, हिंदू पंचांग पर आधारित तिथियों, व्रत-त्योहारों जैसे हिंदू धर्म-कर्म की जानकारियों के लिए अभी डाउनलोड करें प्रभु दर्शन ऐप।

Spread the love

19 thoughts on “इस विधि से श्री सरस्वती सूक्त का पाठ करने से प्राप्त होगा बह्मज्ञान॥ Shree Saraswati Suktam Arth Sahit in Hindi

  1. Jai sree Bramhawadini g ki jai love you bless me God g ki jai love u bless me nd all maa pa ko bless kijiy health full rhe hoo 🌿🌺🍁🍂🌷👏❤❤😍😙😙

  2. हर हर महादेव ये स्तोत्र लिखित रूप से कहा से लिया गया है जानकारी चाहता हूं मित्र

  3. namastay sharada devi
    Kashmira pura vasini
    tavamaha prataye netyam Vidya Dana chha dehimay
    stream uploaded

  4. JAI MATA SARASWATI DI 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

  5. Guruji, I am your fan, I like❤ your natural acting, me, my husband and daughters are also like you Guruji.

  6. उतंम ।
    मुझे आप बता सकती है केसे मैं माता सरस्वती का मंत्र: को प्राप्त कर सकता हूँ?
    धन्यवादः

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *